ढीली पड़ती गाँधी परिवार की कमान?

नई दिल्ली। राजनीति में महत्वाकाक्षाएं अहम होती हैं। वहां दलीय प्रतिबद्धता, राजनैतिक शुचिता और नैतिकता का कोई स्थान नहीं होता है। राजनीति की यह परिभाषा हैं कि समय के साथ जो पाला बदल कर अपनी गोट फिट कर ले वही बड़ा खिलाड़ी है। मध्यप्रदेश के बाद राजस्थान में जो पटकथा लिखी गई, वह इसी नीति की अहम कड़ी है। क्योंकि राजनीति की नैतिकता गिर चुकी है। जनसेवा की बातें सिर्फ मंचीय हो चली हैं। असली सरोकार तो पॉवर पॉलटिक्स से रह गया है।  राजस्थान में गहलोत सरकार के खिलाफ तख्ता पलट की राजनीति कम से कम यहीं संदेश देती है। 



देश और दुनिया कोरोना जैसी महामारी से जूझ रहीं है। भारत में मरीजों की संख्या नौ लाख से पार हो चुकी हैं। हर रोज तकरीब 2500 से अधिक लोगों की मौत हो रही है। इस दौरान जहाँ सरकारों के सामने लोगों की जान बचाने की चुनौती है, वहीं अंधी-बहरी और बेशर्म राजनीति सरकार बनाने और गिराने का खेल खेल रहीं है। राजनीति और राजनेताओं को अपने लोकतांत्रिक दायित्वों के प्रति कोई भी जवाबदेही और नैतिकता नहीँ दिखती है। ऐसी राजनीति और सत्ता जन अधिकारों का गला घोंटती दिखती हैं। यह जनादेश का अपमान है क्योंकि राजस्थान की जनता ने भाजपा के खिलाफ काँग्रेस को जनादेश दिया है। अगर इस जनादेश का सम्मान काँग्रेस और गहलोत सरकार नहीं कर पाती है तो यह जनता के साथ विश्वासघात है। इस कुचक्र में शामिल सचिन और काँग्रेस को जनता कभी माफ नहीं करेगी।  यह वक्त सरकार गिराने और सरकार बनाने का नहीं है।  बल्कि सत्ता, सरकारें, प्रतिपक्ष और राजनेताओं को अपने कर्तव्य और सामाजिक दायित्व को समझना होगा लेकिन मध्यप्रदेश के बाद राजस्थान में भी कोरोना काल में ही यह साजिश क्यों रची जा रहीं है। अगर ऐसी बातें थीं भी तो सचिन पायलट को अच्छे वक्त का इंतजार करना चाहिए था। 


राजस्थान की जनता ने जिस विश्वास से उन्हें अपना जनमत दिया था उसका सम्मान करना चाहिए था। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से लाख मतभेद होते हुए भी इसे मनभेद के धरातल पर नहीं लाना चाहिए था क्योंकि यह वक्त आपदा काल है। अर्थव्यवस्था गर्त में चली गई है। नौकरियाँ खत्म हो गई हैं। लॉकडाउन की वजह से व्यापार-उद्योग सब चैपट हो चला है। कोरोना हर दिन देश के सामने नई चुनौती लेकर खड़ा है। राजस्थान भी अतिसंवेदनशील कतार में है, फिर इस तरह कि राजनीति क्यों? सचिन पायलट को यह लड़ाई संगठन स्तर पर लड़नी चाहिए थी लेकिन ऐसा नहीं हुआ जिसका लाभ अब सीधे भाजपा उठाना चाहती है। घर की इस लड़ाई के लिए खुद काँग्रेस जिम्मेदार है, वह भी दस जनपथ। 


मध्यप्रदेश के बाद राजस्थान की घटना ने यह साबित कर दिया है कि काँग्रेस मतलब दस जनपथ कि कमान संगठन पर कमजोर पड़ गई है। काँग्रेस अब मुठ्ठी में कैद भक्तों के हाथ सिमट गई है। गाँधी परिवार को संगठन के कमजोर होने से कोई मतलब नहीं है, वह केवल अपने वफादारों के साथ अंतिम सांस लेने को मजबूर हैं जबकि संगठन में युवा नेतृत्व बिखर रहा है। सिंधिया के बाद अब सचिन पार्टी के लिए मुसीबत साबित हुए हैं। काँग्रेस के शीर्ष नेतृत्व के लिए यह चुनौती का वक्त है। भाजपा काँग्रेस मुक्त भारत के मिशन में लगी है। वह काँग्रेस के खिलाफ कोई भी ऐसा अवसर नहीं छोड़ना चाहती है जिसका उसे भविष्य में खमियाजा भुगतना पड़े। 


मध्यप्रदेश और राजस्थान में जो हुआ उसमें भाजपा की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता है। अशोक गहलोत का साफ आरोप है कि भाजपा हार्स ट्रेडिंग कर रहीं थीं और उसमें काँग्रेस के लोग भी शामिल थे। उन्होंने यह भी दावा किया है कि उसका पूरा प्रमाण है। उन्होंने कहा कि यह साजिश राज्यसभा चुनाव के दौरान रची गई थीं। फिलहाल यह जाँच का विषय है। लेकिन राजस्थान में भाजपा की चाल फंस गई है, क्योंकि काँग्रेस यहाँ मध्यप्रदेश जैसी कमजोर नहीं दिखती है। यहीं कारण हैं कि सचिन को लेकर भाजपा बेहद फूँक-फूँक कर कदम रख रहीं है। मंत्रिमंडल से सचिन पायलट और उनके करीबियों की बर्खास्तगी के बाद भी भाजपा सेफ मोड पर है। वह विश्वासमत की बात नहीं उठाना चाहती है क्योंकि भाजपा के पास अभी उचित गिनती नहीं दिखती है। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत राज्यपाल कलराज मिश्र से मिलकर सरकार के पास पर्याप्त संख्याबल होने का दावा भी कर चुके हैं। 


सचिन पायलट कह चुके हैं कि वह भाजपा में नहीं जाएंगे, फिर उनका नया ठिकाना क्या होगा? हालांकि काँग्रेस में सचिन प्रकरण को लेकर युवा कार्यकतार्ओं में काफी रोष है। युवा शीर्ष नेतृत्व के इस फैसले से नाराज है। इस मामले में काँग्रेस दो फाड़ दिखती है। प्रियंका गाँधी को भी इस जंग में कूदना पड़ा है। हालात इस तरह के बन रहे हैं कि सचिन पायलट खुद अपने जाल में फंसते दिखते हैं। अब उनकी घर वापसी होगी या फिर नई पार्टी बनाएंगे। क्योंकि मुख्यमंत्री गहलोत 18 विधायकों की सूची राज्य विधानसभा सचिवालय को सौंप चुके हैं। मुख्यमंत्री चाहते हैं कि दलबदल कानून के दायरे में बगावती विधायकों के खिलाफ कार्रवाई हो। विधानसभा अध्यक्ष अगर इस पर फैसला लेते हैं तो गहलोत सरकार की मुश्किल कम हो जाएगी। क्योंकि विधायकों के अयोग्य ठहराए जाने के बाद विधानसभा में बहुमत सिद्ध करना गहलोत के लिए आसान हो जाएगा। 
काँग्रेस के कई नेता चाहते हैं कि पायलट की वापसी हो। सचिन पायलट भाजपा का दामन थाम कर बहुत कुछ हासिल नहीं कर सकते हैं। उनकी जो हैसियत काँग्रेस में है भाजपा में नहीं रहेगी। वह कुछ पल के लिए भाजपा के समर्थन से मुख्यमंत्री बन भी जाएं तो यह रेस अधिक लंबी होने वाली नहीं है क्योंकि वसुंधरा राजे अपनी नाक पर मक्खी क्यों बैठने देंगी? कांग्रेस में अब निर्णायक भूमिका वाले नेतृत्व की आवश्यकता है, जिसमें इंदिरा गांधी जैसी निर्णय क्षमता हो जिनके सामने विरोधी कभी उभर नहीं पाए। उनकी राजनैतिक कुशलता और मुखर नेतृत्व पार्टी के आतंरिक विरोधियों और गुटबाजों पर हमेशा भारी पड़ी लेकिन सोनिया गांधी और बेटे राहुल में यह कार्यशैली नहीं दिखती है। 


गाँधी परिवार और राहुल गाँधी के बेहद करीबी एक-एक कर बिखर रहें हैं, लेकिन उन्हें साथ रखने की कोई ठोस नीति नहीं दिखती है। कांग्रेस में आंतरिक लोकतंत्र खत्म हो चला है। संगठन कि चिंता के बजाय पारिवारिक अस्तित्व की अहमियत अधिक दी जा रहीं है। क्या दस जनपथ यानी सोनिया गांधी जानबूझ कर कांग्रेस की कमान किसी युवा नेतृत्व के हाथ नहीं सौंपना चाहती हैं। 


क्योंकि ऐसा करने से जहां पार्टी पर गांधी परिवार की कमान कमजोर होगी, वहीं गाँधी परिवार का वर्चस्व पार्टी में खत्म हो जाएगा। निश्चित रुप से कांग्रेस और शीर्ष नेतृत्व को इस मामले में दखल देना चाहिए क्योंकि संगठन सबसे महत्वपूर्ण है। ज्योतिरादित्य के बाद अब सचिन उसी राह पर हैं। यह काँग्रेस के लिए चिंता और चिंतन का विषय है लेकिन इस सियासी शहमात के खेल में अगर गहलोत सरकार गिरती है तो सच्चे अर्थों में यह जन विश्वास के साथ आघात होगा। यहाँ जीत 
गहलोत की हो या सचिन की, भाजपा की जय हो या काँग्रेस की पराजय, लेकिन पराजित तो जनादेश और लोकतंत्र होगा। (हिफी)