शिक्षा, शिक्षक और संस्कृति


भाषा, शिक्षा और संस्कृति अभिन्न हैं। एक ही कड़ी में गुंथे मोती हैं। अगर एक भी छिटका तो शेष को  बचाना अगर असंभव नहीं तो कठिन जरूर होता है। वर्तमान में हम उस कठिन दौर से गुजर रहे हैं जहां एक नहीं, तीनों के सामने अनेक चुनौतियां हैं। ऐसे में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण वह व्यक्तित्व है जो इस चुनौती को अवसर में बदलने का सामथ्र्य रखता है। महात्मा चाणक्य ने कभी उसी के लिए कहा था, 'शिक्षक कभी साधारण नहीं होता, प्रलय और निर्माण उसकी गोद में पलते हैं।'


सा विद्या विमुक्ते अर्थात विद्या वही है जो बंधनों से मुक्त करे। वर्तमान परिपेक्ष्य में यदि हम विद्यार्थी एवं शिक्षक के संबंधों की चर्चा करंे तो अनेक लोग कहते हैं कि आज का विद्यार्थी उदण्ड व शरारती है तो शिक्षक भी कम लापरवाह एवं आलसी नहीं है। कर्तव्य विमुखता ही चरित्रिक पतन का मूल है लेकिन ऐसे लोग इस प्रश्न से बचते हंै कि शिक्षक कौन? क्या वेतन पाकर सरकारी अथवा प्राइवेट विद्यालय की किसी कक्षा में तयशुदा पाठ्यक्रम का एक विषय पढ़ाने (निपटाने) वाला ही शिक्षक है? क्या बिना डिग्री, बिना नियुक्ति, बिना वेतन प्राप्त किये शिक्षा देने वाले अभिभावक, समाज के अनुभवीजन, लोक कलाकार शिक्षक नहीं हैं? विद्वानों के मतानुसार 'ऐसा व्यक्ति जो छात्र के मन में सीखने की इच्छा जागृत करे, वह शिक्षक है।'


स्वामी विवेकानन्द का कथन है, 'शिक्षा व्यक्ति में अंतर्निहित पूर्णता की अभिव्यक्ति है।' तो गांधीजी कहा करते थे, 'सच्ची शिक्षा वह है जो बच्चों के आध्यात्मिक, बौद्धिक और शारीरिक पहलुओं को उभारती है और प्रेरित करती है। इस तरीके से हम सार के रूप में कह सकते हैं कि उनके मुताबिक शिक्षा का अर्थ सर्वांगीण विकास था।' इस तरह से देखंे तो यह बात उभर कर आती है कि शिक्षा मनुष्य की शक्तियों का विकास करती है, विशेष रूप से मानसिक शक्तियों का विकास करती है ताकि वह परम सत्य, शिव एवम सुंदर का चिंतन करने योग्य बन सके। इसी प्रकार शिक्षक कोे कुछ इस तरह से भी परिभाषित किया गजा सकता है- शि- शिखर तक ले जाने वाला। क्ष- क्षमा की भावना रखने वाला। क- कमजोरी दूर करे वाला।


एक आत्मचिंतन संगोष्ठी में इन पंक्तियों के लेखक ने प्रश्न किया कि 'आज के किसी भी युवा से पूछिये कि वह क्या बनना चाहता है तो अधिकांश का उत्तर होगा - आईएएस, आईपीएस, जज, डाक्टर, इंजीनियर, वकील, सीए, सीएस, पायलट। शायद ही कोई शिक्षक बनने की बात कहे। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि शिक्षण में श्रेष्ठ को आना चाहिए परंतु यह तो प्राथमिकता सूची से ही गायब है। इसीलिए आ रहा है वह जिसे ऊपर वाली सूची में स्थान नहीं मिल रहा। शौक और उत्साह में नहीं, मजबूरी में।' वहां उपस्थित कुछ लोगों को इसपर आपत्ति थी। एक हिन्दी साहित्यकार शिक्षक ने अंग्रेजी में रोष प्रकट करते हुए कहा- ंउ चतवनक जव ठम ं ज्मंबीमतण्बहुत अच्छा लगा कि उन्हें अपने शिक्षक होने पर गर्व है परंतु एक अन्य वक्ता का मत था कि 'क्या यह ज्यादा अच्छा नहीं होगा कि हम आत्मप्रशंसा से मुग्ध होने की बजाय यह चिंतन करें  कि क्या हमारे छात्रों को हमारे जैसा शिक्षक पाने का गर्व है?' इसपर प्रथम वक्ता फिर भड़के तो लगा कि महात्मा चाणक्य ने प्रलय और निर्माण दोनो शिक्षक की गोदी में होने की बात अकारण नहीं कहीं है।


यूं तो हमारे देश में गुरुपूर्णिमा पर गुरु पूजन की परम्परा है लेकिन 5 सितम्बर को अलग से शिक्षक दिवस मनाया जाता है क्योंकि इसी दिन महान शिक्षक, दार्शनिक और भारत के प्रथम उपराष्ट्रपति जो बाद में  राष्ट्रपति भी हुए सर्वपल्ली डा. राधकृष्णन जी का जन्मदिवस है। उन्हें स्मरण करते हुए हर शिक्षक को अपने कार्य को केवल अर्थोपार्जन अथवा जीविका का माध्यम न मानते हुए प्रकृति और परिस्थितियों द्वारा सौंपी गई विशेष जिम्मेवारी का गौरव बोध भी होना चाहिए। 


उसकी जिम्मेवारी केवल पाठ्यक्रम पूरा करना, कराना नहीं बल्कि अपने छात्रों को नैतिक मूल्य, संस्कृति, समाज, राष्ट्र चिंतन से भी जोड़ना है। वह राष्ट्र निर्माता है क्योंकि 'राज्य की रक्षा अपनी शक्ति, सामथ्र्य, संसाधनों और सहयोगियों की मदद राजा कर सकता हैं परंतु राष्ट्र की रक्षा केवल शिक्षक ही कर सकता है। इसलिए बेशक उसे कंटकाकीर्ण मार्ग पर चलना पड़े तो भी  विचलित न होते हुए अपने छात्रों को पथभ्रष्ट होने से बचाने के लिए हर संभव प्रयास करना है। शिक्षा प्रणाली बदलनी चाहिए परंतु उसके बदलने का इंतजार किये बिना एक सच्चा शिक्षक अपने व्यवहार से बहुत कुछ बदल सकता है। शिक्षक दिवस के अवसर पर सभी शिक्षकों को प्रणाम करते हुए उनसे अपने दायित्व के प्रति आस्था-निष्ठा को और प्रबल करने की प्रार्थना है। केवल वही देश, दुनिया को बदल सकते हैं।