अस्तित्व का संघर्ष कर रही है नारी

आज भी हमारे देश में लड़कियों को तरह-तरह से  संस्कारित किया जाता है जैसे वे धीमी आवाज में बात करें, पुरूषों द्वारा परिभाषित ढंग के कपड़े पहनंे, घर के तथा घर में आने-जाने वाले मेहमानों का ध्यान रखें, खाना अच्छा पकायंे, कपड़े साफ धोएं, काम समय पर निपटायें, सुबह जल्दी उठंे, वगैरह-वगैरह लेकिन मैं पूछती हूं  कि उपरोक्त सारे कार्य लड़कियों को करने को ही क्यों कहा जाता है। लड़कांे को क्यों नहीं। 


क्या लड़के ढंग से बोलेंगे तो अच्छी बात नहीं, वे ढंग के कपड़े पहनेंगे तो अच्छी बात नहीं, वे घर तथा बाहर के लोगों का सम्मान करंेगे तो अच्छी बात नहीं, क्या खाना पकाना सीख लंेगे तो अच्छी बात नहीं या जल्दी सुबह सो कर उठेंगे तो अच्छी बात नहीं। तो फिर लड़की ही संस्कारों और रीति रिवाजों की वेदी क्यों पर चढ़ती है और कब तक लोगों के बनाये इन ढकोसलांे की वेदी पर चढ़ती रहेगी। हमारा देश बड़ा ही धार्मिक है। सच में कहें तो धर्म ग्रन्थों को पूजने वाला देश है। यहां हर समाज में धर्म ग्रन्थों को पूजा जाता है। उसमें कही गयी हर बात पर लगभग अमल किया जाता है लेकिन स्त्री के लिए ऐसे धर्मग्रन्थों का क्या महत्त्व है जिन्हें वह आदर देती है। क्या किसी भी धर्मग्रन्थ में स्त्री के स्वाभिमान, सम्मान एवं अधिकारों की बात की गयी है सिवाय कर्तव्यों के, सारे कर्तव्यों के निर्वहन करने का ठेका क्या स्त्री ने ही ले रखा है। तुम भी बिना डरे, बिना किसी की दुत्कार झेले, बिना किसी के भोग की वस्तु बने, इस खुली हवा में 'मनुष्यरूपी पुरूष' की तरह सांस लेने की हकदार हो। हां, पुरूष मनुष्य रूपी पुरूष ही है और कुछ नहीं जो सिर्फ एक इच्छा रखते हैं कि एक स्त्री उनकी हर तरह से सेवा में रहे। जब वे काम से घर लौटे तो मां के रूप में, उनकी तबीयत पूछे, उन्हंे खाना पूछे, बहन की तरह उनके कपड़े धोएं, पत्नी की तरह पत्नी धर्म निभाये और हर हाल में उनकी इच्छा की पूर्ति होनी ही चाहिए। एक स्त्री के प्रति उनके क्या कर्तव्य हैं, न वे जानते हैं और अगर जानते है तो उन कर्तव्यों को पूरा करने में उनकी नानी मरती है। आखिर कब तक एक स्त्री बलिदान देती रहेगी, पहले पिता के लिए, फिर पति के लिए और पुत्र के लिए।


उसे इन बलिदानों के बदले क्या मिलता है। स्त्री के इन बलिदानांे की कौन कद्र करता है? बस उसका फर्ज है, कहकर उससे ये बलिदान करवाये जाते हैं। बलिदान शब्द केवल स्त्री के लिए ही क्यों बना है, पुरूषांे के लिए क्यों नहीं? मुझे इस बात का बहुत ही कष्ट है, और मैं मनुष्यरूपी पुरूषांे को दोषी ठहराते हुये यह कहना चाहती हूं कि उनकी पुरूषवादी तथा सामन्तवादी मानसिकता की शिकार स्त्रियां आज भी हैं और स्त्री की स्थिति सुधरने में अभी कई सदियां लगेगी। मुझे यह बहुत ही दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि धर्म ग्रन्थों में स्पष्ट है कि पुरूष के काम में सहायता करने के लिए ही स्त्री का जन्म हुआ है। स्त्री अपनी किसी खुशी या किसी काम के लिए जन्म नहीं लेती। वह सिर्फ दूसरों के लिए ही जीवित रहती है। उसका कोई स्वतन्त्र अस्तिव और व्यक्तित्व है भी या नहीं? धर्म के ठेकेदारों जरा बता दो मुझे। अब भी स्त्री एक व्यक्ति के रूप में जन्म से मृत्यु तक पृथक रूप से जीवन यापन करने का अधिकार अर्जित नहीं कर पायी है। स्त्री सिर्फ पुरूष की लालसा का निवारण करेगी और उसे पुत्र सन्तान का उपहार देगी क्योंकि पुत्र से पुरूष का वंश चलता है पुत्री से नहीं। इन सारे दकियानुसी विचारोें विश्वासों और अंधें सस्ंकारों को उखाड़कर फेंक देने का साहस यदि स्त्री नहीं करती है तो वह कदापि एक मनुष्य के रूप में खड़ी नहीं हो सकती। स्त्री जब तक पुरूष प्रभुत्ववादी मानसिकता को अस्वीकार कर उसे चुनौती देने और संघर्ष करने का साहस नहीं दिखलाती, तब तक उसका हर तरह से शोषण उत्पीड़न जारी रहेगा।