भक्ति की आड़ में मौजमस्ती करना कितना उचित?


भारत में भक्ति करने की कई विधाएं प्रचलित हंै लेकिन इधर कुछ दिनों से भक्ति में एक विधा का प्रवेश बहुत तेजी से हो रहा है जो कहीं न कहीं भारतीय संस्कृति  व भक्ति पर परोक्ष रूप से कुठाराघात है और आने वाले समय में काफी नुकसानदायक सिद्ध हो सकती है।


मानते हंै कि आध्यात्मिक व्याखानों में नवधा भक्ति का जिक्र है जिससे लोगों को भगवतप्राप्ति व मोक्ष की बात बताई गई है लेकिन वर्तमान समय में भक्ति की दसवीं विधा जो समाज में देखने को मिल रही है वह कहीं न कहीं समाज में एक बहुत बड़ी समस्या पैदा करने में सहायक हो सकती है। दसवीं भक्ति विधा है भक्ति के नाम पर मौज मस्ती जो खुद भक्ति करने वाले और उसके परिवार व समाज को भी नुकसानदेह साबित होगा क्योंकि आज के युवा ज्यादातर भक्ति का ढोंग मौजमस्ती करने के लिए करते हंै।  इसका उदाहरण धार्मिक स्थलों व धार्मिक कार्यक्रमों में बखूबी देखा जा सकता है जहां पर मनमाने डीजे पर नाचना, सेल्फी लेना आज नवभक्तों की प्रमुख भक्ति विधा बन चुकी है और केवल दिखावे के चक्कर में भक्ति का ढोंग करते हंै जबकि सच में भक्ति करने से काफी दूर रहते हैं। 


आजकल देखा जाता है कि जब कुछ नवभक्त किसी धार्मिक स्थल पर जाते हैं तो उस स्थल को भी पिकनिक स्पाट बना लेते हंै और मौज मस्ती करते है। अपने मित्र मंडली के साथ इतने व्यस्त रहते हंै कि उन्हें परवाह नहीं कि इस धार्मिक स्थल पर और लोग भी पूजा पाठ करने आए हैं। गणेश पूजा, दुर्गा पूजा, कृष्ण जन्माष्टमी आदि कार्यक्रमों में ज्यादातर जगहों पर देखा जाता है कि लोग केवल भक्ति के नाम पर मौज मस्ती करते हंै और पैसे को बर्बाद करते हैं जबकि इन धार्मिक कार्यक्रमों में कुछ ऐसे कार्यक्रम होने चाहिए जो समाज को कुछ सीख दे सकें। हद तो तब हो जाती है जब रामलीला के मंच पर नर्तकियों का नाच अश्लील गीतों पर होता है और कमेटी के लोग आध्यात्मिक चंदे में से ही इन नर्तकियों को नाचने का मेहनताना देते हैं जबकि रामलीला जैसे पवित्र मंच पर इन नर्तकियों को बुलावा कितना धर्मसंगत है यह तो सब समझ सकते हंै। इस तरह का कृत्य हमारी संस्कृति को नष्ट करने में सहायक सिद्ध होंगे।


श्रावण और फाल्गुन माह में भगवान शंकर को लोग जलाभिषेक करने के लिए कांवड से जल ले जाकर जलाभिषेक करते हैं लेकिन कांवड़ यात्रा के दौरान कांवड़ियों की मौजमस्ती भी कहीं कहीं शिकायत का कारण बनती है। भक्ति व पूजा में स्वच्छता, सात्विकता, शालीनता, सत्यता, शान्ति और ऐसे ही न जाने कितने अच्छे अच्छे विचार होने चाहिए तभी वह भक्ति व पूजा फलित होती है। न कि मनमानी खानपान, रहन-सहन, बोलचाल, भाव-विचार आदि से भक्ति का प्रसाद मिल सकता है। अतः हम सब का परम कर्तव्य बनता है कि भक्ति की विधाओं में मौजमस्ती को स्थान न दें क्यांेकि भक्ति में भाव की प्रधानता होती है न कि ढोंग व दिखावा की। भक्ति 'फार्मेल्टी' नही होनी चाहिए। वैसे ही पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव हम सबके ऊपर इतना पड़ रहा है कि कुछ लोगों को भगवान पर भी शक होने लगा है। कि भगवान का अस्तित्व है भी कि नहीं? भक्ति में  श्रद्धा के साथ आध्यात्मिक विधाओं के नौ प्रकार में से किसी एक विधा को अपनाएं लेकिन यह हमेशा याद रखें कि भक्ति में भाव की प्रधानता हो न कि ढोंग व मौजमस्ती की।